आपको भी मूवी देखकर ऐसे ही लगेगा कि नागराज मंजुले की ‘झुंड’ मूवी वाकई में महादेव की बारात है. जिस तरह महादेव की बारात के बारे में कहा जाता है कि समाज का हर तबका आया था, यहां तक कि नागा साधु, मलंग, भूत प्रेत भी. यानी जो सामाजिक व्यवस्था से बाहर थे, वो सब लोग. उसी तरह नागराज ने उन लोगों को हीरो बनाया है, जो आपके हीरो के पैमाने में कहीं से फिट नहीं बैठते. यूं तो धारावी जैसी बस्तियों पर तमाम मूवीज बनी हैं, हाल ही के सालों में आई ‘काला’, ‘गली बॉय’ और ‘पुष्पा’ तक, लेकिन इस मूवी के कलाकार ना ‘पुष्पा’ की तरह करोड़ों चीरकर सिंडिकेट किंग बनते हैं, ना ‘काला’ के रजनीकांत की तरह किसी बड़े नेता के खिलाफ उठ खड़े होते हैं और ना ‘गली बॉय’ की तरह रणवीर सिंह जैसे सुपर स्टार का चेहरा लगाते हैं. सभी वैसे ही लगेंगे, जैसे कभी शिवजी ने बारात जुटाई थी, अमिताभ बच्चन इस मूवी में इस ‘झुंड’ को जुटाकर टीम बनाते हैं.
रिएलिटी के करीब है कहानी
झुंड की खासियत बस यही है कि ये रिएलिटी के इतना करीब है कि आपको इसके जरिए समाज की एक सच्चाई भी पता लगेगी. इस फिल्म को शिवजी की बारात भी इसलिए कहा गया है क्योंकि महाशिवरात्रि के दिन प्रेस शो रखा गया तो इसके पात्रों को देखकर यही पहला ख्याल दिमाग में आया. सारे ही नशेबाज हैं, गांजा पीते हैं, दारू-जुआ तो रोज का काम है, खाली टाइम में चैन खींचना, मोबाइल छीनकर भाग जाना, चलती मालगाड़ी में चढ़कर कोयला आदि सामान निकाल लेना उनके धंधे हैं, कुछ कूड़ा भी बिनते हैं. किसी के खानदान का पता नहीं तो किसी का बाप शराबी, कक्षा 5 से ज्यादा शायद ही कोई पढ़ा हो, लेकिन बालों और कपड़ों की स्टाइल किसी भी हीरो से कम नहीं. उन्हें गरीब दिखाने के लिए किसी मेकअप की जरुरत नहीं, गरीबी उनके चेहरे से ही टपकती है. ज्यादातर बच्चे किसी स्लम बस्ती के ही हैं, ‘सुपर 30’ की तरह, लेकिन सुपर 30 में थोड़ा बनावटीपन था, जिससे नागराज थोड़े बचा ले गए हैं. इस फिल्म में ना बस्ती और ना बस्ती के लोग, कोई भी नकली नहीं लगता.
कोच विजय बरसे पर है कहानी
कहानी भी एकदम असली है, कभी आमिर खान के शो ‘सत्यमेव जयते’ में आ चुके स्पोर्ट्स कोच विजय बरसे ने नागपुर में स्लम बस्तियों के बच्चों को फुटबॉल सिखाने में गुजार दी. उन्हीं का रोल निभाया है ‘झुंड’ में अमिताभ बच्चन ने, नाम रखा विजय बोराडे. रिटायरमेंट से ठीक पहले वो अपने स्कूल के पीछे एक लम्बी बॉउंड्री वॉल से ढकी दुनिया यानी स्लम बस्ती में कुछ बच्चों को एक डब्बे से फुटबॉल बनाकर खेलते देखते हैं, उससे पहले उन्हें हमेशा नशा करते, लड़ते झगड़ते देखा था. उस दिन उनको एक आइडिया सूझता है और वो एक फुटबॉल लेकर उनके बीच पहुंच जाते हैं और उन्हें आपस में खेलने के लिए 500 रुपए देते हैं. कई दिन तक यही चलता है, फिर बच्चों को फुटबॉल की लत लग जाती है और एक दिन ये टीम उस स्कूल की टीम को हराने के साथ साथ इंटरनेशनल टूर्नामेंट के लिए भी चुन ली जाती है.
दलित समाज को लेकर कई सीन्स
ये आइडिया आपको ‘गली बॉय’ जैसा लगेगा, उसमें रैपर थे, इसमें फुटबॉलर हैं. काफी हद तक है भी, फर्क ट्रीटमेंट का है, नागराज का अपना स्टाइल है. उनकी तारीफ दलित एक्टिविस्ट लगातार अपने पेजों, ग्रुप्स में करते रहते हैं, जिसका दवाब भी उनके ऊपर होता है, सो ‘जय भीम’ का नारा, बाबा साहेब जयंती का जश्न और अमिताभ बच्चन का उनके चित्र को प्रणाम करने का सीन आपको इस मूवी में दिखेगा. लेकिन साथ ही मैसेज भी कि फुटबॉल टीम बनाओगे तो चंदा मिलेगा, लेकिन बाबा साहेब जयंती के दिन डीजे पर डांस करोगे तो नहीं मिलेगा. कई और मैसेज हैं, नशाबाजी, मारपीट करोगे तो इंटरनेशनल टूर्नामेंट जैसा कोई बड़ा मौका हाथ से निकल सकता है, मालगाड़ी से माल चुराने में जान भी जा सकती है.
सोसायटी को दिया खास संदेश
इस फिल्म में एक बड़ा मैसेज सोसायटी के लिए है, जिसके लिए नागराज लम्बा इंतजार करवाते हैं, अमिताभ बच्चन के खाते में लम्बा डायलॉग कोर्ट सीन में ही आता है, फिल्म के बिलकुल आखिर में, उससे पहले अमिताभ का किरदार उन बच्चों के साथ ज्यादा भाषणबाजी नहीं करता. लेकिन कोर्ट के सीन के जरिए बता देता है कि ये जो दीवार सोसायटी के बीचोंबीच है, वो टूटनी चाहिए. वो नशा, मारपीट, चोरी आदि इसलिए करते हैं क्योंकि अनपढ़ हैं, गरीब हैं, कानून का उन्हें बोध नहीं और सबसे बड़ा संदेश जो इस मूवी से दिया जाता है, वो है उसके बीच से प्रतिभाएं ढूंढकर अगर लाई जाएं, उन्हें किसी क्रिएटिव काम में लगाया जाए, तो वो समाज का हिस्सा बन सकते हैं, वो ये सब छोड़ सकते हैं, लेकिन उन्हें ऐसे ही छोड़ा नहीं जा सकता. हालांकि कभी के एंग्री यंगमैन का ‘पैर पड़ जाओ’, जैसा सुझाव अच्छा नहीं लगता.
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