पड़ोसी देश श्रीलंका की हालत खराब है और इतनी खराब है कि अब वहां पर एक आम इंसान का रहना भी मुश्किल हो गया है. ऐसे में श्रीलंका के हालात का सीधा असर भारत पर भी पड़ना तय है. आशंका इस बात की है कि अब श्रीलंका से हजारों की संख्या में शरणार्थी भारत का रुख करेंगे और भारत को भी इस शरणार्थी समस्या का सामना करना पड़ेगा. आशंका इस बात की भी है कि श्रीलंका से आने वाले लोगों की तादाद इतनी ज्यादा होगी कि भारत के सामने एक बार फिर से 1983 जैसे हालात पैदा हो जाएंगे, जब श्रीलंका से लाखों की संख्या में शरणार्थियों का भारत आना शुरू हुआ था, जो 2012 तक चलता रहा था. क्या थी वो कहानी, पढ़िए…
भारत श्रीलंका के उत्तर में है. श्रीलंका के उत्तरी पश्चिमी इलाके में बसे थलाईमन्नार से भारत के तमिलनाडु राज्य का धनुषकोडी शहर समुद्र के रास्ते करीब 25 किलोमीटर दूरी पर है. अक्सर ये होता रहा है कि श्रीलंकाई मछुआरे समुद्र में रास्ता भटककर भारतीय सीमा में दाखिल हो जाते हैं और भारतीय मछुआरे रास्ता भटक कर श्रीलंका की सीमा में… लेकिन अब इसी रास्ते का इस्तेमाल श्रीलंका के उत्तरी इलाके में बसे वो श्रीलंकाई तमिल कर सकते हैं, जो देश में बिगड़े हुए आर्थिक हालात के बाद किसी तरह से खुद को ज़िंदा बचाए हुए हैं.
अभी मार्च के आखिर में भी कुल 16 परिवारों को तमिलनाडु मरीन पुलिस ने हिरासत में लिया था, जो श्रीलंका से भारत में घुस गए थे. बाद में तमिलनाडु पुलिस ने उन्हें श्रीलंकाई शरणार्थियों के लिए बनाए गए शरणार्थी शिविरों में भेज दिया गया. तमिलनाडु सरकार ने इन्हें अस्थाई तौर पर शरणार्थी का दर्जा दिया है, लेकिन इनके भविष्य को लेकर अंतिम फैसला तो केंद्र सरकार को ही करना होगा. वहीं तमिलनाडु की सरकार कोशिश कर रही है कि कुछ और नए शरणार्थी शिविर बनाए जा सकें, जिससे कि श्रीलंका से आने वाली शरणार्थी समस्या से निपटा जा सके. लेकिन सवाल ये है कि क्या तमिलनाडु सरकार या फिर केंद्र की मोदी सरकार चाहकर भी श्रीलंका से आए शरणार्थियों को अपने यहां जगह दे पाएगी.
कुछ ऐसा रहा श्रीलंका-भारत का इतिहास
इस सवाल के पीछे श्रीलंका से भारत आने वाले शरणार्थियों का वो इतिहास है, जिसकी वजह से श्रीलंका में लिट्टे जैसा संगठन पैदा हुआ और जिस समस्या को सुलझाने की कोशिश में भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने तमिलों को अपना ऐसा दुश्मन बनाया कि उनकी हत्या ही कर दी गई. चलिए थोड़ा इतिहास के पन्नों को भी खंगालते हैं और तब बात करते हैं. श्रीलंका में सबसे ज्यादा आबादी सिंहला की है, जो बौद्ध धर्म को मानते हैं. आंकड़ों के हिसाब से बात करें तो करीब 75-76 फीसदी आबादी सिंहला की है. लेकिन वहां पर तमिलों की भी अच्छी-खासी आबादी है, जिनमें से अधिकांश आबादी हिंदू धर्म को मानती है. तमिल आबादी में भी दो तरह की आबादी है. एक आबादी तो श्रीलंकाई तमिलों की है, जिनका हिस्सा पूरी जनसंख्या का करीब-करीब 13 फीसदी है. और ये श्रीलंका के उत्तरी और पूर्वी हिस्से में हैं. इसके अलावा करीब चार फीसदी आबादी भारतीय तमिलों की भी है, जो लंबे वक्त से श्रीलंका में रह रहे हैं. अंग्रेजों के जमाने में उन्हें चाय के बागानों में काम करने के लिए ले जाया गया था और वो वहीं के होकर रह गए थे. लेकिन तमिलों के साथ श्रीलंका में हमेशा से भेदभाव होता रहा है. बौद्ध धर्म को मानने वाले सिंहला और हिंदू धर्म को मानने वाले तमिलों में हमेशा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है.
सिंहला बनाम तमिलों की लड़ाई का श्रीलंका में लंबा इतिहास भी रहा है. चूंकि श्रीलंका में आबादी सिंहला की ज्यादा है तो 1948 में आजादी के बाद से श्रीलंका की सत्ता पर कब्जा भी सिंहला का ही रहा है. इसको लेकर तमिलों में लगातार विरोध के सुर देखे गए हैं. ये विरोध 1956 में तब और बढ़ गया, जब सिंहला ऐक्ट 1956 के तहत अब का श्रीलंका और तब की सिलोन सरकार ने अंग्रेजी को हटाकर सिंहला को देश की एकमात्र राष्ट्रीय भाषा घोषित कर दिया. तमिलों ने सिंहला के खिलाफ सबसे बड़ी बगावत की शुरुआत 1972 में की थी. तब तक श्रीलंका सीलोन हुआ करता था और वो उसका मुखिया ब्रिटिश क्राउन ही हुआ करता था. 1970 में सिरिमोवा भंडारनायके के प्रधानमंत्री बनने के बाद 1972 में सिलोन ने खुद को ब्रिटिश क्राउन से अलग कर लिया. उसे स्वायत्ता मिल गई और सिलोन का नाम हो गया लंका, जिसे बाद में बदलकर कर दिया गया श्रीलंका. सिरिमोवा भंडारनायके श्रीलंका की प्रधानमंत्री थीं. उन्होंने बौद्ध धर्म को देश का प्राथमिक धर्म घोषित किया. इससे तमिलों को लगा कि उनके साथ हो रहा भेदभाव और ज्यादा बढ़ गया है. उन्होंने अपने लिए अलग से देश की मांग कर दी और इसके लिए आंदोलन शुरू कर दिया. आए दिन तमिलों और श्रीलंकाई सेना के बीच झड़प की खबरें आने लगीं.
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